Saturday, August 15, 2015

“Paas Baitho Tabeeyat Behel Jayegi” - Jagdeep

पास बैठो तबीयत बहल जाएगी” - जगदीप

                           ............शिशिर कृष्ण शर्मा

साल 1975 में आई फ़िल्म शोलेकी ज़बर्दस्त कामयाबी ने फ़िल्म के छोटे से छोटे किरदार और उन किरदारों को निभाने वाले तमाम कलाकारों को मशहूरी की बुलंदियों पर पहुंचा दिया था। इन्हीं कलाकारों में शामिल थे सूरमा भोपालीयानि अभिनेता जगदीप जिन्होंने बतौर एक एक्स्ट्रा, फ़िल्मों में कदम रखा था और जो एक सफल बालकलाकार और फिर हीरो के तौर पर कई फ़िल्में करने के बावजूद इन 25 सालों में अपनी कोई ख़ास पहचान नहीं बना पाए थे। लेकिन फ़िल्म शोलेकी कामयाबी ने उन्हें रातोंरात स्टार बना दिया था।

जगदीप से मेरी पहली मुलाक़ात साल 1999 में प्रसारित हुए दूरदर्शन धारावाहिक ट्रक धिना धिनके सेट पर हुई थी जिसका निर्माण (स्व.) प्रमोद महाजन के बेटे राहुल महाजन ने किया था। इस शो के निर्देशक फ़िल्म स्वदेसके लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त, विज्ञापन और फ़िल्मजगत के मशहूर सिनेमैटोग्राफर महेश आनेय थे। वरिष्ठ लेखक-निर्देशक प्रयागराज जी और कौन बनेगा करोड़पतिके लेखक आर.डी.तैलंग के लिखे इस काऊण्टडाऊन शो ट्रक धिना धिनके कार्यकारी निर्माता मशहूर पोस्टर संग्राहक एस.एम.एम.औसजा थे जो आज जानी-मानी नीलामी कम्पनी ओसियानके उपाध्यक्ष

और ब्लॉग बीते हुए दिनके अभिन्न अंग हैं। इस धारावाहिक में जगदीप और उनके बेटे जावेद जाफ़री मामा-भांजे की ट्रक ड्राईवर जोड़ी के रूप में नज़र आए थे और ये अपने दौर का सबसे ज़्यादा टी.आर.पी. वाला शो था। इस एपिसोडिक शो के विभिन्न एपिसोड्स में मुझे कई अहम किरदार निभाने को मिले थे।

मुम्बई आए मुझे ज़्यादा समय नहीं हुआ था। दिलोदिमाग़ पर फ़िल्मों और टी.वी. का ग्लैमर हावी था। फ़िल्म शोलेके सूरमा भोपाली को साक्षात अपने सामने खड़ा देखा तो छोटे शहर से आए किसी भी शख़्स की तरह मेरे भी छक्के छूट गए। लेकिन उनके दोस्ताना व्यवहार ने जल्द ही सहज होने में मेरी बहुत मदद की और उनके साथ काम करने का अनुभव भी बेहद सुखद और अविस्मरणीय रहा। ट्रक धिना धिनके बन्द होने के बाद भी उनसे कभी-कभार मुलाक़ात होती रही। और जब साप्ताहिक सहारा समयसे मेरे लेखन की शुरूआत हुई तो एक रोज़ मैं जगदीप जी के बान्द्रा (पश्चिम) स्थित घर पर एक नए किरदार में मौजूद था। मेरे कॉलम क्या भूलूं क्या याद करूंमें प्रकाशित उनके इंटरव्यू को पाठकों ने बेहद पसन्द किया था।

29 मार्च 1939 को मध्यप्रदेश के दतिया में जन्मे जगदीप के पिता दतिया रियासत के जाने-माने बैरिस्टर थे। जगदीप का असली नाम सैयद इश्तियाक़ अहमद जाफ़री है, लेकिन घर में प्यार से उन्हें मुन्ना कहकर बुलाया जाता था। जगदीप महज़ 8 साल के थे जब उनके पिता गुज़रे और कुछ ही दिनों बाद देश का बंटवारा भी हो गया। जगदीप कहते हैं, “बंटवारे की वजह से हमारा पूरा परिवार तितर-बितर हो गया था। कुछ लोग पाकिस्तान चले गए तो मां मुझे साथ लेकर दतिया से मुम्बई गयीं जहां मेरा बड़ा भाई रहता था। लेकिन भाई ने हमें पनाह देने से साफ़ इंकार कर दिया। मजबूरन मां को मुझे साथ लेकर जे.जे.अस्पताल के सामने फ़ुटपाथ पर डेरा डालना पड़ा।

मां चाहती थीं कि जगदीप सिर्फ़ पढ़ाई की तरफ़ ध्यान दें। पेट पालने के लिए उन्होंने लोगों के घरों में पानी भरा, यतीमखाने में खाना पकाया, लेकिन जगदीप मां का हाथ बंटाना चाहते थे। वो कहते हैं, “मां की हालत देखकर मुझे बहुत दुख होता था और इसीलिए मैं उनका सहारा बनना चाहता था। मां की इच्छा के विरूद्ध मैंने पढ़ाई छोड़ दी। पैसा कमाने के लिए मैंने टिन के कारखाने में मज़दूरी की, पतंगें बनाईं, फ़ुटपाथ पर कंघी और साबुन बेचा। तभी एक रोज़ फ़िल्मों का एक एक्स्ट्रा सप्लायर तीन रूपया मेहनताने का लालच देकर फ़ुटपाथ के हम सभी बच्चों को बी.आर.चोपड़ा की फ़िल्म अफ़सानाकी शूटिंग पर लेकर गया। हमें फ़िल्म के एक सीन में नाटक देख रही भीड़ में बैठा दिया गया।“  

उस सीन में मंच पर बेबी तबस्सुम और मास्टर रतन कुमार के अलावा दरबान बना एक बच्चा मौजूद था जो ठीक से डायलॉग नहीं बोल पा रहा था। यश चोपड़ा उस फ़िल्म में असिस्टेंट डायरेक्टर थे। उनके कहने पर वो डायलॉग जगदीप ने बोला जो सबको बेहद पसन्द आया। लोगों में मास्टर मुन्नाकी चर्चा हुई और उसी रोज़ उन्हें तीनचार और फ़िल्मों में काम मिल गया। जगदीप बताते हैं, “मैं डायलॉग बोलने के लिए इसलिए तैयार हुआ क्योंकि मुझे पता चला था, इसके तीन की जगह छह रूपए मिलेंगे। फ़िल्म अफ़सानासाल 1951 में रिलीज़ हुई थी जिसके बाद मैंने आराम’, ‘काले बादल’, ‘भोला शंकर’, ‘मुरलीवाला’ (सभी 1951), ‘आसमान(1952) और आरपार(1954) जैसी क़रीब बीस फ़िल्मों में बतौर बालकलाकार छोटी-छोटी भूमिकाएं कीं।“ 

फ़िल्म आरपारका शीर्षक गीत कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़रमूल रूप से जगदीप पर फ़िल्माया गया था। लेकिन सेंसर बोर्ड को इस गीत का एक नाबालिग लड़के पर फ़िल्माया जाना अश्लील महसूस हुआ इसलिए इसे फ़िल्म से हटाने का आदेश दे दिया गया। उधर फ़िल्म रिलीज़ पर थी इसलिए इस गीत को कुमकुम पर रीशूट किया गया, हालांकि जगदीप के भी कुछ शॉट्स इस गीत में रखे गए थे। 

जगदीप को पहला बड़ा ब्रेक रणजीत मूवीटोनकी फ़िल्म धोबी डॉक्टर(1954) में मिला था जिसमें उन्होंने फ़िल्म के हीरो किशोर कुमार के बचपन का रोल किया था। इस फ़िल्म में उन्होंने ख़ुद ही अपना नाम मास्टर मुन्ना से बदलकर जगदीप रख लिया था। जगदीप बताते हैं, “फ़िल्म धोबी डॉक्टरका वो रोल छोटी-छोटी बातों पर रो पड़ने वाले एक बेहद ही भावुक क़िस्म के बच्चे का था। फ़िल्म के रशेज़ देखकर बिमल रॉय ने मुझे फ़िल्म दो बीघा ज़मीनमें एक हास्य भूमिका दी। उन्होंने कहा था, ‘जो कलाकार लोगों को अच्छा रूला सकता है वो अच्छा हंसा भी सकता है।उनकी कही बात सच साबित हुई। फ़िल्म दो बीघा ज़मीनमें लल्लू उस्तादका मेरा चरित्र इतना मशहूर हुआ कि मेरे प्रशंसक रूसी बच्चों ने ख़्वाजा अहमद अब्बास के हाथों ख़ासतौर से मेरे लिए एक लाल स्कार्फ़ उपहार में भेजा था।

साल 1953 में बनी दो बीघा ज़मीनवो पहली हिंदी फ़िल्म थी जिसका प्रीमियर अंग्रेज़ी फ़िल्मों के लिए मशहूर मुम्बई के मैट्रो सिनेमा हॉलमें हुआ था। जगदीप बताते हैं, “प्रीमियर वाले दिन रेडियो सीलोन के लिए जो युवक इस फ़िल्म से जुड़े कलाकारों और तकनीशियनों के इंटरव्यू ले रहा था उसने मुझसे वादा किया था कि वो जल्द ही मेरा इंटरव्यू भी लेगा। लेकिन वो दिन कभी नहीं आया। एक रोज़ रमेश सहगल ने अपनी नयी फ़िल्म के हीरो की भाषा सुधरवाने के लिए मुझे बुलाया तो मैंने देखा सामने वोही रेडियो सीलोन वाला युवक बैठा था। फ़िल्म थी साल 1955 में बनी रेलवे प्लेटफ़ार्मऔर वो हीरो थे सुनील दत्त।“ 

साल 1957 में आयोजित बाल फ़िल्म समारोहके अंतिम दौर के लिए चुनी गयीं 3 फ़िल्में थीं मुन्ना(1954), ‘अब दिल्ली दूर नहींऔर हम पंछी एक डाल के’ (दोनों 1957) जगदीप ने इन तीनों ही फ़िल्मों में अहम भूमिकाएं निभायी थीं। इस प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ बाल-फ़िल्मका पुरस्कार हम पंछी एक डाल केने जीता था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू जगदीप के अभिनय से इतने प्रभावित थे कि समारोह के दौरान उन्होंने ख़ुश होकर अपने हाथ का रूल जगदीप को भेंट किया था। जगदीप के अनुसार उन्होंने आज भी वो रूल बेहद एहतियात के साथ सम्भालकर रखा हुआ है।

हम पंछी एक डाल केके बाद जगदीप को मद्रास की कम्पनी .वी.एम.में स्थायी नौकरी पर रख लिया गया। कांट्रेक्ट के मुताबिक़ जगदीप अब .वी.एम. से बाहर की फ़िल्में नहीं कर सकते थे। साल 1957 में बनी इस बैनर की भाभीमें जगदीप पहली बार हीरो बने। अभिनेत्री नन्दा इस फ़िल्म में उनकी हिरोईन थीं। फ़िल्म भाभीअपने दौर की बेहद कामयाब फिल्मों में से थी। .वी.एम. की ही फ़िल्म बरखा(1959) में भी नन्दा और जगदीप की जोड़ी को बेहद पसंद किया गया। जगदीप के मुताबिक़ रंगीन फ़िल्मों का दौर शुरू हुआ तो उन्हें सुबोध मुकर्जी ने फ़िल्म जंगलीके हीरो के तौर पर लेना चाहा। लेकिन .वी.एम.ने इजाज़त देने से साफ़ इंकार कर दिया। यही उन बी.आर.की धर्मपुत्रके वक़्त हुआ जिनकी फ़िल्म अफ़सानासे जगदीप ने अपना करियर शुरू किया था।

जगदीप कहते हैं, “बिमल रॉय की फ़िल्म प्रेमपत्रमें भी मेरे साथ यही हुआ तो .वी.एम.की सहमति के बावजूद मैंने कुण्ठित होकर .वी.एम.के प्रिय लेखक राजेन्द्र कृष्ण के निर्माता भाई हरगोविन्द जी की फ़िल्म शादीमें काम करने से साफ़ इंकार कर दिया। बाद में यह रोल मनोज कुमार ने किया। मेरे इंकार से नाराज़ होकर .वी.एम.ने मेरे साथ हुआ कांट्रेक्ट तोड़ दिया। उसके बाद मैंने बैंड मास्टर’, ‘राजा’ (दोनों 1963), ‘पुनर्मिलन(1964), ‘नूरमहल(1965 / चित्र में) जैसी कुछेक फ़िल्में बतौर हीरो कीं लेकिन इनमें से कोई भी फ़िल्म चल नहीं पायी।

हीरो के तौर पर नाकाम रहने के बाद जगदीप ने कुछ समय के लिए ब्रेक ले लेना बेहतर समझा। साल 1968 में बनी फ़िल्म ब्रह्मचारीमें उन्हें एक बार फिर से हास्य भूमिका करने का मौक़ा मिला। उसके बाद वो जीने की राह’, ‘खिलौना’, ‘जिगरी दोस्त’, ‘अपना देश’, ‘एजेंट विनोद’, ‘सुरक्षा’, ‘तरानासे लेकर सनम तेरी कसम’, ‘अंदाज़ अपना अपना’, ‘वो सात दिन’, ‘लज्जाऔर अजब प्रेम की ग़ज़ब कहानीतक साढ़े तीन सौ से भी ज़्यादा फ़िल्मों में बतौर हास्य कलाकार नज़र आए। फ़िल्म शोलेकी ज़बर्दस्त कामयाबी से उत्साहित होकर उन्होंने बतौर निर्माता-निर्देशक फ़िल्म सूरमा भोपालीबनाई जो साल 1988 में प्रदर्शित हुई थी। साल 2012 में प्रदर्शित हुई गली गली में चोर हैजगदीप की अभी तक की आख़िरी प्रदर्शित फ़िल्म है।

जगदीप के दोनों बेटे जावेद और नवेद जाफ़री फ़िल्मों और टी.वी. कार्यक्रमों से जुड़े हुए हैं। जगदीप कहते हैं, “जीवन सुक़ून से गुज़र रहा है और चाहता हूं, ऐसे ही गुज़रता रहे।

जैसा कि पता चला थाजगदीप जी पिछले क़रीब 2 सालों से बीमार चल रहे थे| फ़रवरी 2019 मेंसिने एंड टी.वी.आर्टिस्ट्स एसोसिएशन-सिंटाकेएक्टफेस्टसमारोह में सम्मानित किये गए वरिष्ठ कलाकारों में उनका नाम भी शामिल था| लेकिन बीमारी के कारण वो उक्त समारोह में उपस्थित नहीं हो पाए थे| इसके कुछ महीनों बाद मैंने अभिनेत्री कम्मो के पतिबालमके बारे में जानकारी हासिल करने के लिए उनसे संपर्क करना चाहा तो पता चला वो गंभीर रूप से बीमार हैं|

जगदीप जी का निधन दिनांक 8 जुलाई 2020 को 81 साल की उम्र में मुम्बई में हुआ|


We are thankful to

Mr. Harish Raghuvanshi & Mr. Harmandir Singh ‘Hamraz’ for their valuable suggestion, guidance and support.

Mr. S.M.M.Ausaja for providing movies’ posters.

Ms. Aksher Apoorva, Mr. Gajendra Khanna & Ms. Maitri Manthan for the English translation of the write ups.

Mr. Manaswi Sharma for the technical support including video editing.


Jagdeep on YT Channel BHD



Paas Baitho Tabeeyat Behel Jayegi- Jagdeep

                       ............Shishir Krishna Sharma

The Grand success of 1975 release Sholeymade famous not only the smallest characters of the film but also the actors portraying them. Among them was Soorma Bhoplii.e. actor Jagdeep who entered filmdom as an extra, eventually turned a successful child artist and despite playing hero in a couple of films, he failed to get a proper recognition in all these 25 years. But Sholeys success made him a star overnight.

I first met with Jagdeep on the sets of Doordarshan serial Truck Dhina Dhinwhich was telecast in the year 1999. This show was produced by (Late) Mr. Pramod Mahajan’s son Rahul Mahajan and its director was the renowned cinematographer of the Ad & Film world Mahesh Aney, who later won National Award for the filmSwades. This show was written by the famous writer-director Prayag Raj and the Kaun Banega Karorpatifamed R.D.Telang. Executive producer of this countdown show was the renowned poster collector S.M.M.Ausaja who is now the vice president of the well-known auction company ‘Osian’ and is also an integral part of the blogBeete Hue Din. Jagdeep and his son Javed Jaffery played uncle and nephew duo truck drivers in ‘Truck Dhina Dhin’ which was the top show with maximum TRP of its time. I was fortunate to play lots of important roles in different episodes of this episodic show.

It wasn’t very long that I had shifted base to Mumbai and was still very overwhelmed with the glamour of films and TV. Like an ordinary person who comes from smaller cities and towns I was taken aback to see Sholeys Soorma Bhopli standing right in front of me. But soon I regained my composure, all thanks to his friendly behaviour, my experience working with him proved to be very pleasant and unforgettable. Even after the show Truck Dhina Dhinended, I kept on meeting with him occasionally. And when I started writing for the weekly ‘Sahara Samay’, one day I met with Jagdeep ji in an entirely new role at his home at Bandra (West). His interview, published in my columnkya bhooloon kya yaad karoonwas well appreciated by the readers.  

Jagdeep was born in Datia - Madhya Pradesh on 19 March 1939. His father was a well-known barrister of the Datia State. Jagdeep’s real name is Syed Ishtiaq Ahmed Jaffery but he was fondly called Munna. Jagdeep was hardly 8 when his father died and a few days later the partition of the country took place. Jagdeep says, “After the partition the whole family got scattered. Some of the members migrated to Pakistan whereas my mother, taking me along, shifted from Datia to Mumbai where my elder brother resided. But my brother flatly refused the shelter to us. Constrainedly, we started living on footpath opposite J.J.Hospital.”

Jagdeep’s mother wanted him to focus on his studies. To run the household she worked as a water-woman in neighbouring homes and as a cook in the orphanage but Jagdeep wanted to be a support to her. He says, I felt very bad for my mother and wanted to anyhow support her. I left my studies against her wish, I worked as a labour in a tin-factory, tried my hand in kite-making, sold combs and soaps on footpath. One day an extra supplier in the films, promising to pay Rs.3/- each, took all of us footpath dweller children along to the shoot of B.R.Chopra’s filmAfsana. We were made sit in the crowd watching a stage play in the scene of the film being pictured.“  

Apart from Baby Tabassum and Master Rattan Kumar, another child artiste was also present on the stage playing the doorman in the scene. Despite repeated attempts, he wasn’t able to deliver his dialogue properly. Yash Chopra was an assistant director in that film. He asked Jagdeep to speak doorman’s dialogue which he did and was liked and appreciated by everyone present on the sets. People were so impressed withMaster Munnathat he got roles in 3-4 more movies the same day. Jagdeep says, “I readied myself to speak the dialogue only because I was told that instead of 3/-, I would be paid Rs.6/- for this. FilmAfsanareleased in the year 1951 after which I did small roles in around 20 movies viz. Araam’, ‘Kaale Baadal’, ‘Bhola Shankar’, ‘Murliwala’ (all 1951), ‘Aasmaan’ (1952) and Aar Paar’ (1954) as a child artist.

Film Aar Paar’s title songkabhi aar kabhi paar laga teere nazarwas originally pictured on Jagdeep only. But the censor board felt the picturisation on a minor boy to be obscene and ordered to remove the song from the movie. Since the release date was nearing, the song was reshot on Kumkum in urgency, though a couple of Jagdeep’s shots were also retained in the song.

Jagdeep got his first big break inRanjit Movietones Dhobi Doctor’ (1954) in which he played the younger Kishore Kumar, who was the hero of the film. In this very film he changed his screen name from ‘Master Munna’ to ‘Jagdeep’.  Jagdeep says, “My character in ‘Dhobi Doctor’ was that of a very emotional child who starts crying even on very little issues. After watching the rushes of this film, Bimal Roy signed me for a comedy role for the filmDo Beegha Zameen. He said, ‘The actor who can make people cry, can make them laugh as well.’ And this turned out to be true. My character Lallu Ustad in the filmDo Beegha Zameen became so famous that my little fans in Russia especially sent a red scarf as a gift to me through Khwaja Ahmed Abbas.”

Released in the year 1953, ‘Do Beegha Zameen’ was the first Hindi film to be premiered at Mumbai’s Metro cinema hall which was otherwise known for the release of English movies only. Jagdeep says, “At the premier, a young man who was interviewing the artistes and technicians associated with the movie for Radio Ceylon promised that he would interview me too soon. But the day never came. One day when Ramesh Sehgal called me to teach the nuances of language to the hero of his next film, I found the same young man from the Radio Ceylon in front of me. That movie was, 1955 release Railway Platformand that hero was Sunil Dutt.

In the Children Film Festivalheld in 1957, 3 movies viz. Munna’ (1954), ‘Ab Dilli Door NahinandHum Panchhi Ek Daal Ke’ (both 1957) were selected for the final round of the competition. Jagdeep had acted in all 3 movies. The Best Children Filmaward in the competition went to ‘Hum Panchhi Ek Daal Ke’. That time Prime Minister Pt. Jawaharlal Nehru was so impressed with Jagdeep’s acting talent that during the festival he gifted him with the rule which he was holding in his hand. According to Jagdeep, he has still kept the rule with him very carefully.

After ‘Hum Panchhi Ek Daal Ke’s success Jagdeep got a permanent job with Madras based renowned film company A.V.M.. As per the contract, Jagdeep wasn’t allowed to work in the movies produced by any outside banner now. The 1957 release of the A.V.M. bannerBhabhiwas Jagdeep’s debut movie as hero. Actress Nanda was his heroine in this film. Bhabhiwas one of the most successful movies of its time.  Nanda and Jagdeep’s pair was repeated in A.V.M.’s 1959 release Barkhatoo and they were again liked by the audiences. According to Jagdeep, with the advent of colour cinema he was offered lead role of the filmJunglee by Subodh Mukerjee butA.V.M.didn’t allow him sign the outside banner’s movie. The same happened when B.R.s offered him the lead role in Dharmputra, coincidentally B.R.’s Afsanawas Jagdeep’s debut movie.

Jagdeep says, “When A.V.M. again refused to allow me to sign Bimal Roy’s Prem Patra I got so frustrated that despite A.V.M.s recommendation I rejected filmShaadi which was produced by ‘A.V.M.’s favourite writer  Rajinder Krishna’s brother Hargobind ji. Eventually this role was played by Manoj Kumar. My refusal to sign ‘Shaadi’ made A.V.M. so angry that they immediately cancelled their contract with me. Afterwards I did a couple of movies viz. Band Master’, ‘Raja’ (both 1963), ‘Punarmilan’ (1964), ‘Noor Mahal’ (1965) as hero but none of these could make an impression of it on the box office.

After his failure as hero Jagdeep felt to better take a little break from acting. Then he started afresh as a comedian with 1968 release filmBrahmachari. After that he did comedy roles in more than 350 movies from Jeene Ki Raah’, ‘Khilona’, ‘Jigri Dost’, ‘Apna Desh’, ‘Agent Vinod’, ‘Suraksha’, ‘TaranatoSanam Teri Kasam’, ‘Andaz Apna Apna’, ‘Who Saat Din’, ‘LajjaandAjab Prem Ki Ghazab Kahani. Elated by the success of his character in Sholey, he also made a filmSoorma Bhoplias producer-director in the year 1988. Film Gali Gali Me Chor Hai (2012) is Jagdeep’s last release for the present.

Both of Jagdeep’s sons Javed and Naved Jaffery are associated with the films and T.V. shows. Jagdeep says, “The life is passing in peace and I want it pass the same way.

As I came to know, Jagdeep ji wasn’t keeping well for last 2 years. He was among those senior artistes who were to be felicitated in ‘Cine & TV Artistes Association-CINTAA’s ActFest held in February 2019. But due to his illness, he could not manage to attend the ActFest. Meanwhile when I tried to contact him a couple of months later to gather some information about actress Kammo’s actor husband ‘Balam’, I came to know that Jagdeep ji was seriously ill.     

Jagdeep ji died on 8 July 2020 in Mumbai, at the age of 81.

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